महान गणितज्ञ आर्यभट्ट का जीवन परिचय Aryabhatta Biography in Hindi

 


आर्यभट का जीवन परिचय | Biography of Aryabhatta 


नाम: आर्यभट्ट.

जन्म: 476 ई.पू.

स्थान: पाटलिपुत्र.

मृत्यु: 550 ई.पू.

स्थान: प्राचीन भारत

पिता: श्री बंडू बाबू आठवले

माता: होन्साबाई बंदा आठवले

शिक्षा: नालंदा विश्वविद्यालय,

युग: गुप्त काल

रचनाए: आर्यभटीय, आर्य सिद्धांत,

पेशा: गणितका, ज्योतिषविद, खगोलशास्त्री 

खोज: शून्य (0), पाई का मान, ग्रहों की गति व ग्रहण, बीजगणित, अनिश्चित समीकरणों के हल, अंकगणित व अन्यकार्य

विशेष योगदान:- बीजगणित में भी सबसे पुराना ग्रंथ आर्यभट का है। उन्होंने सबसे पहले 'पाई' (p) की कीमत निश्चित की और उन्होंने ही सबसे पहले 'साइन' (SINE) के 'कोष्टक' दिए। गणित के जटिल प्रश्नों को सरलता से हल करने के लिए उन्होंने ही समीकरणों का आविष्कार किया, जो पूरे विश्व में प्रख्यात हुआ। एक के बाद ग्यारह, शून्य जैसी संख्याओं को बोलने के लिए उन्होंने नई पद्धति का आविष्कार किया।

आर्यभट का जीवन परिचय। 

आर्यभट प्राचीन भारत के एक महान  ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान  पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था। लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था। यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है। आर्यभट्ट का जन्म कुसुमपुर, पटना में ईसा पूर्व सन् 476 से 550 तक माना जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह पाठ उस समय लिखा गया था। यह उल्लिखित वर्ष 499। ईसा पूर्व से मेल खाता है। और इसका तात्पर्य है कि उनका जन्म 476 में हुआ था।नालन्दा विश्वविद्यालय में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी। इनके शिष्य प्रसिद्ध खगोलविद वराह मिहिर थे। आर्यभट्ट ने 23 वर्ष की आयु में 'आर्यभट्टिय' नाम से एक ग्रंथ लिखा था। हिंदू और बौद्ध दोनों परंपराएं, साथ ही भास्कर प्रथम कुसुमपुरा को पाटलिपुत्र, आधुनिक पटना के रूप में पहचानते है। और, क्योंकि उस समय  नालंदा विश्वविद्यालय पाटलिपुत्र में था। आर्यभट्ट को बिहार के तारेगना में सूर्य मंदिर में एक वेधशाला स्थापित करने के लिए भी जाना जाता है। आर्यभट्ट गणित और  खगोल विज्ञान पर कई ग्रंथों के लेखक हैं। जिनमें से कुछ लुप्त हो गए हैं। वे नालन्दा विश्वविद्यालय के छात्र थे। बाद में वे उसके एक विभाग के अध्यक्ष भी बने। नालंदा में खगोल विज्ञान, गणित,भौतिकी, जीव विज्ञान, चिकित्सा और अन्य क्षेत्रों में कई शोध किए गए। इसलिए आर्यभट्ट को ज्ञान का प्रमुख स्रोत नालंदा से मिला और उनका प्रमुख कार्य यूनानियों, मेसापोटामिया और नालंदा विश्वविद्यालय के पिछले आविष्कारों पर आधारित था। आर्यभट द्वारा रचित तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका,आर्यभटीय और तंत्र है। उन्होंने आर्यभटीय नामक महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ लिखा। जिसमें वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। भारत के इतिहास में जिसे 'गुप्तकाल' या 'स्वर्णयुग' के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था।आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है।

विश्व गणित के इतिहास में भी आर्यभट का नाम सुप्रसिद्ध है। उन्होंने सबसे पहले 'पाई' (p) की कीमत निश्चित की और उन्होंने ही सबसे पहले 'साइन' (SINE) के 'कोष्टक' दिए। गणित के जटिल प्रश्नों को सरलता से हल करने के लिए उन्होंने ही समीकरणों का आविष्कार किया, जो पूरे विश्व में प्रख्यात हुआ। एक के बाद ग्यारह, शून्य जैसी संख्याओं को बोलने के लिए उन्होंने नई पद्धति का आविष्कार किया। वृद्धावस्था में आर्यभट ने 'आर्यभट सिद्धांत' नामक ग्रंथ की रचना की। आज भी 'हिन्दू पंचांग' तैयार करने में इस ग्रंथ की मदद ली जाती है। आर्यभट के बाद इसी नाम का एक अन्य खगोलशास्त्री हुआ जिसका नाम 'लघु आर्यभट' था। खगोल और गणितशास्त्र, इन दोनों क्षेत्र में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान के स्मरणार्थ भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट रखा गया था। शून्य की महान खोज ने आर्यभट का नाम इतिहास में अमर कर दिया। जिसके बिना गणित की कल्पना करना भी मुश्किल है। उन्होंने ही सबसे पहले उदाहरण के साथ बताया कि हमारी पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए सूरज की परिक्रमा करती है और चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह है जो पृथ्वी की परिक्रमा करता है। उनका मानना था कि सभी ग्रहों की कक्षा दीर्घ वृत्ताकार है। उन्होने बताया कि चंद्रमा का प्रकाश सूरज का ही परावर्तन है।



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