चन्द्र सिंह गढ़वाली का जीवन परिचय | Chandra Singh Garhwali ka jeevan parichay | चन्द्र सिंह गढ़वाली की लघु जीवनी हिंदी में |


चन्द्र सिंह गढ़वाली का जीवन परिचय | Chandra Singh Garhwali ka jeevan parichay | चन्द्र सिंह गढ़वाली की लघु जीवनी हिंदी में | 

नाम: चंद्र सिंह भंडारी

उपनाम: चन्द्र सिंह गढ़वाली

जन्म: 25 दिसम्बर 1891ई.

मृत्यु: 1 अक्टूबर 1979 ई.

स्थान: गढ़वाल, उत्तराखंड

पिता: जलौथ सिंह भंडारी

पत्नी: श्रीमती भागीरथी देवी

पद: हवलदार मेजर

बटालियन: 2/36 राइफल्स गढ़वाल

प्रसिद्ध: पेशावर कांड के नायक के रूप में याद किया जाता है।

👉23 अप्रैल 1930 के पेशावर कांड के नायक।

👉पेशावर कांड के समय चन्द्रसिंह 2/18 गढ़वाल राइफिल्स में हवलदार थे।

वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली का जीवन परिचय |

चन्द्र सिंह गढ़वाली एक भारतीय सैनिक थे। भारतीय इतिहास में पेशावर कांड के नायक के रूप में याद किया जाता है।

इनका जन्म 25 दिसंबर 1891 को हुआ था। और 1 अक्टूबर 1979 को उनकी मृत्यु हो गई। चन्द्रसिंह के पूर्वज गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ के थे। चन्द्र सिंह के पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। और वह एक अनपढ़ किसान थे। चन्द्र सिंह ने अपनी मेहनत से ही पढ़ना लिखना सीख लिया था। उन्हें भारतीय इतिहास में  स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इनकार करने के लिए याद किया जाता है। वह थोड़े समय के लिए  

साबरमती आश्रम  में महात्मा गांधी के साथ रहे । 

चन्द्र सिंह गढ़वाली ने 3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और सेना में भर्ती हो गये। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। 1 अगस्त 1915 में चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया। जहाँ से वे 1 फ़रवरी 1916 को वापस लैंसडौन आ गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। 

1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजो द्वारा कई सैनिकों को निकालना शुरू कर दिया। और इसमें चन्द्रसिंह भी थे। इन्हें भी हवलदार से सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया।और इन्हें कुछ समय का अवकास भी दे दिया। इसी दौरान चन्द्रसिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये।

कुछ समय पश्चात इन्हें इनकी बटैलियन समेत 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। 

वहाँ से वापस आने के बाद इनका ज्यादा समय आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बीता। और इनके अंदर स्वदेश प्रेम का जज़्बा पैदा हो गया। 

पर अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और उन्होंने इन्हें खैबर दर्रे के पास भेज दिया। इस समय तक चन्द्रसिंह मेजर हवलदार के पद को पा चुके थे।और हुक्म दिये की आंदोलनरत जनता पर हमला कर दें। पर इन्होंने निहत्थी जनता पर गोली चलाने से साफ मना कर दिया। इसी ने पेशावर कांड में गढ़वाली बटेलियन को एक ऊँचा दर्जा दिलाया और इसी के बाद से चन्द्र सिंह को चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम मिला और इनको पेशावर कांड का नायक माना जाने लगा।

अंग्रेजों की आज्ञा न मानने के कारण इन सैनिकों पर मुकदमा चला। गढ़वाली सैनिकों की पैरवी मुकुन्दी लाल द्वारा की गयी जिन्होंने अथक प्रयासों के बाद इनके मृत्युदंड की सजा को कैद की सजा में बदल दिया। 1930 में चन्द्रसिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया। पर इनकी सज़ा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया। गांधी जी इनके बेहद प्रभावित रहे। 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और फिर से 3 तीन साल के लिये गिरफ्तार हुए। 1945 में इन्हें आजाद कर दिया गया।

22 दिसम्बर 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग के कारण चन्द्रसिंह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके। 1957 में इन्होंने कम्युनिस्ट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा पर उसमें इन्हें सफलता नहीं मिली। 1 अक्टूबर 1979 को चन्द्रसिंह गढ़वाली का लम्बी बिमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये।


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