तात्या टोपे का जीवन परिचय | Tatya Tope ka jeevan parichay | तात्या टोपे की लघु जीवनी हिंदी में |


तात्या टोपे का जीवन परिचय | Tatya Tope ka jeevan parichay | तात्या टोपे की लघु जीवनी हिंदी में |

पूरानाम: रामचंद्र पांडुरंग टोपे

नाम: तात्या टोपे

उपनाम: बुंदेलखंड का शेर

जन्म: 16 फरवरी 1814 ई.

स्थान: नाशिक, महाराष्ट्र, भारत

मृत्यु: 18 अप्रैल 1859 ई.

स्थान: शिवपुरी, मध्य प्रदेश, भारत

मृत्यु का कारण: फाँसी द्वारा मृत्युदंड

पिता: पांडुरंग रावभट्ट़

माता: रुखमा बाई 

प्रसिद्धि: स्वतंत्रता सेनानी

आन्दोलन: प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

👉पेशवा की सेना का जनरल 1856 से 6 दिसम्बर 1857 तक।

👉तात्या टोपे ने 'पढ़ो और फिर लड़ो' का नारा दिया था।

👉भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई तथा नाना साहब का प्रमुख योगदान था।


तात्या टोपे का जीवन परिचय।

तात्या टोपे 1857 के भारतीय विद्रोह में एक उल्लेखनीय कमांडर थे। तात्या का जन्म 16 फरवरी 1814 में महाराष्ट्र में नाशिक के निकट येवला नामक गाँव में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। तात्या का वास्तविक नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था। परंतु लोग स्नेह से उन्हें तात्या के नाम से पुकारते थे। इनके पिता का नाम पांडुरंग रावभट्ट़ था। तथा माता का नाम रुखमाबाई था। कुछ समय तक तात्या ने ईस्ट इंडिया कम्पनी की बंगाल सेना की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया था। परन्तु स्वतंत्र चेता और स्वाभिमानी तात्या के लिए अंग्रेजों की नौकरी असह्य थी। इसलिए बहुत जल्दी उन्होंने उस नौकरी से छुटकारा पा लिया और बाजीराव की नौकरी में वापस आ गये। कहते हैं तोपखाने में नौकरी के कारण ही उनके नाम के साथ टोपे जुड गया।

मराठा सरसेनापती श्रीमंत तात्यासाहेब टोपे भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के एक प्रमुख सेनानायक थे। सन 1957 के महान विद्रोह में उनकी भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण, प्रेरणादायक और बेजोड़ थी। सन् सत्तावन का विद्रोह 10 मई को मेरठ से आरम्भ हुआ था। जल्दी ही क्रांति की चिन्गारी समूचे उत्तर भारत में फैल गयी। विदेशी सत्ता का खूनी पंजा मोड़ने के लिए भारतीय जनता ने जबरदस्त संघर्ष किया। उसने अपने खून से त्याग और बलिदान की अमर गाथा लिखी। उस रक्तरंजित और गौरवशाली इतिहास के मंच से झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, रावसाहेब पेशवा, बहादुरशाह जफर आदि के विदा हो जाने के बाद करीब एक साल बाद तक तात्या विद्रोहियों की कमान संभाले रहे।

5 जून 1857 को कानपुर में विद्रोह भड़कने के बाद नाना साहब स्वतंत्रता सेनानियों के नेता बन गए। जब ​​25 जून 1857 को कानपुर में ब्रिटिश सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। तो जून के अंत में नाना को पेशवा घोषित कर दिया गया। हार के बाद नाना की सेना को बिठूर वापस लौटना पड़ा, जिसके बाद हैवलॉक गंगा पार करके अवध वापस चला गया। तात्या टोपे ने बिठूर से नाना साहब के नाम पर काम करना शुरू किया। तात्या टोपे कानपुर नरसंहार के नेताओं में से एक थे। जो 27 जून 1857 को हुआ था। इसके बाद, टोपे ने 16 जुलाई 1857 को ब्रिटिश सेना द्वारा खदेड़े जाने तक एक अच्छी रक्षात्मक स्थिति बनाए रखी। इसके बाद, उन्हें जनरल सिरिल ने कानपुर की दूसरी लड़ाई में हराया, जो 19 नवंबर 1857 को शुरू हुई और सत्रह दिनों तक जारी रही। सर कॉलिन कैंपबेल के नेतृत्व में अंग्रेजों द्वारा जवाबी हमला किए जाने पर टोपे और उनकी सेना हार गई।

अब उन्हें निराश होकर परोन के जंगल में शरण लेने को विवश होना पडा। परोन के जंगल में तात्या टोपे के साथ विश्वासघात हुआ। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया और उसकी गद्दारी के कारण तात्या 7 अप्रैल, 1859 को सोते में पकड़ लिए गये। विद्रोह और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ने के आरोप में 15 अप्रैल, 1859 को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। उन्हें मौत की सजा दी गयी। शिवपुरी के किले में उन्हें तीन दिन बंद रखा गया। तात्या टोपे को 18 अप्रैल 1859 को सीपरी, शिवपुरी में ब्रिटिश सरकार द्वारा फांसी दे दी गई । 

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