भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार नाना साहेब का जीवन परिचय Nana Saheb ka jeevan parichay |


 

भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार नाना साहेब का जीवन परिचय Nana Saheb ka jeevan parichay | 

नाम: नाना साहेब (नानाराव)

जन्म: 19 मई 1824 ई.

स्थान: वेणगाव,‌ कर्जत, महाराष्ट्र

मृत्यु: 24 सितम्बर 1859 ई.

पिता: नारायण भट 

माता: गंगा बाई

पालक पिता: बाजीराव द्वितीय

प्रसिद्धि: पेशवा, स्वतंत्रता सेनानी


नाना साहेब का जीवन परिचय।

नाना साहेब सन 1857 के भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार थे। उनका मूल नाम 'धोंडूपन्त' था। स्वतन्त्रता संग्राम में नाना साहेब ने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध नेतृत्व किया। नानासाहेब धोंडोपंत पेशवा ने 19 मई 1824 को महाराष्ट्र के वेणगाव, कर्जत के निवासी माधवराव नारायण भट्ट तथा मैनावती के घर जन्म लिया था। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा ने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया और उनकी शिक्षा दीक्षा का यथेष्ट प्रबन्ध किया। उन्हें हाथी घोड़े की सवारी, तलवार व बन्दूक चलाने की विधि सिखाई गई और कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान भी कराया गया। 28 जनवरी 1851 ई। को पेशवा बाजीराव की मौत हो गई। कहा जाता है कि मृत्यु तक पेशवा को 80 हजार डॉलर की पेंशन अंग्रेज़  सरकार से मिलती थी, लेकिन बाद में उसे रोक दिया गया। माना जाता है कि लॉर्ड डलहौजी ने नाना साहेब को दत्तक पुत्र होने के कारण पेंशन देने से मना कर दिया। ऐसे में नाना साहेब को इस बात से बहुत दु:ख हुआ। एक तो वैसे ही उनके मराठा साम्राज्य पर अंग्रेज अपनी हुकूमत जमा कर बैठे थे, वहीं दूसरी ओर उन्हें जीवन यापन के लिए रॉयल्टी का कुछ भी हिस्सा नहीं दिया जा रहा था। इसके बाद 1853 ई। में नाना साहेब ने अपने सचिव अजीम उल्ला ख़ाँ को पेंशन बहाली पर बात करने के लिए लंदन भेजा। अजीम उल्ला ख़ाँ हिंदी, फ़ारसी, उर्दू, फ्रेंच, जर्मन और संस्कृत का अच्छा ज्ञाता था। वह अंग्रेजों की क्रूर नीतियों का शिकार था। इसलिए नाना साहेब ने उसे अपना सचिव बना लिया था। इस दौरान अजीम उल्ला ने अंग्रेज अधिकारियों को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उनकी सभी दलीलें ठुकरा दी गईं। ब्रिटिश अधिकारियों के इस रवैये से नाना साहेब बेहद खफा थे। ऐसे में उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत को ही सबसे अच्छा विरोध का माध्यम माना। 1857 में ब्रिटिश राज के खिलाफ कानपुर में बगावत छेड़ दी। जब मई 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ज्वालायें उठीं, नाना साहब भी राष्ट्र मुक्ति संघर्ष में कूद पड़े थे। उन्होंने कानपुर पर अधिकार कर लिया। कई मास इस पर आज़ादी का झण्डा लहराता रहा। कानपुर पर फिर से अधिकार करने के लिए हेवलॉक ने विशाल सेना के साथ आक्रमण किया। उन्होंने कुछ समय तक शत्रु सेना से वीरता के साथ संघर्ष किया। अन्त में उनकी पराजय हुई। नाना साहब ने अपना साहस नहीं खोया और उन्होंने कई स्थानों में शत्रु सेना से संघर्ष किया। अन्त में जब 1857 का प्रथम संग्राम असफल हुआ, तब नाना साहब को सपरिवार नेपाल की शरण लेनी पड़ी। लेकिन वहाँ शरण ना मिल सकी, क्योंकि नेपाल दरबार अंग्रेज़ों को असन्तुष्ट नहीं करना चाहता था। जुलाई सन 1857 तक इस महान् देश भक्त को घोर आपत्तियों में अपने दिन व्यतीत करने पड़े। उनका स्वराज्य स्थापना का स्वप्न टूट चुका था।

नाना साहब की मृत्यु को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। माना जाता है कि नेपाल के देवखारी गांव में रहते हुए नाना साहेब भयंकर बुख़ार से पीड़ित हो गए और इसी के परिणामस्वरूप मात्र 35 साल की उम्र में 24 सितम्बर 1859 को इनकी मौत हो गई।

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